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Monday, January 22, 2024

वीआईपी बनाम भगवान










दस्तक पड़ी द्वार पर तो, द्वारपाल चीखा, "कौन है तू? 

बिना टिकट कहां घुस रहा?"

वो बोला, "अरे मैं भगवान हूं, ये तो मेरा ही मंदिर ठहरा!"

द्वारपाल भड़का, "चल भाग, तू मुफ्तखोर, घुसा चला आ रहा, 

देखता नहीं ये वीआईपी एंट्री है, दर्शन हो रहा?!"

वो चकराया, "मगर मैं तो यहां हूं, दूर खड़ा?

ये समारोह, ये भव्य निर्माण,

सब मेरे ही नाम पर तो हो रहा!"

द्वारपाल हंसा, "तू भगवान है?

क्या है तेरे पास इस अयोजन का निमंत्रण?

अरे कौन भगवान, कैसा भगवान?

आज का भगवान तो है - धन और धनवान।"

Sunday, October 15, 2023

तमाशा










फसादों में उलझे हो, न जीते हो न जीने देते हो,

जिंदा हो मगर मौत का खेल खेलते हो।

तुम्हें मालूम नहीं फर्क - निर्दोष और दोषी का,

तुम्हें आता है सिर्फ खेल बर्बादी का।


देकर बलि कमज़ोर और मजलूमों की,

भरते हो दम सच्चाई और खुदाई का। 

चाहे नाम लो किसी भी ऊपर वाले का,

दुश्मन इंसानियत के हो तुम,

सही मानों में तुम ही हैवान हो;

और तुम्हारा ऊपरवाला - नकारा, बेगैरत,

जिसकी खुदाई के नाम पे चलता है,

तुम्हारा ये कारोबार हैवानियत का।


इससे तो बेहतर थे हम जानवरों के मानिंद,

बस एक भूख ही अपना खुदा था।

चलो कर दो अंत तुम्हारी-हमारी इस बीमार नस्ल का, 

होगा तभी शायद सृजन एक नए मकबूल नस्ल का।


तमाशबीनों ये तमाशा देखते रहो, 

लहू के छींटों का स्वाद लेते हो,

जो आज ये बहता रक्त तुम्हारा नहीं, 

रक्तबिजों का हौसला बढ़ाते हो।

कभी बिकेगा गोश्त तुम्हारा भी इसी मंडी में,

तुम्हारी जिंदगी की भी लगेगी बोली,

आखिर तुम भी हो एक बिकाऊ समान, इसी बाजारू दुनिया में,

जहां ज़िंदगी सस्ती, मगर उसका तमाशा बिकता बड़ा महंगा है।

 

Thursday, January 2, 2020

ठंड बहोत है!

ठंड बहोत है, मौसम में या दिलों में?
जम गया है खून, पानी जैसे, सड़कों पे या दिलों में?
कुछ लोग आग लगा के खुश हैं, देश में या दिलों में?
दोस्त, पड़ोसी, सब अजनबी, ये दूरियां घरों में या दिलों में?
तू कौन है, मैं कौन हूं, नकाब चहरों पे या दिलों पे?
ये नफरत है या फितरत, ज़हर किताबों में या दिलों में?
जश्न ये नए साल का, सिर्फ तारीख़ के पन्नों में या दिलों में? 
खुशी मनाएं किस बात का, झूठे, वादों पे या दिलों पे?
बातें करते सभी हैं, मगर यकीन, शब्दों पे या दिलों पे?
मसीहा हैं, रहनुमा हैं, खुदा भी है, महलों में या दिलों में?
मुझे खामोश करने में लगे हो, गलती मुझमें है या दिलों में?

Thursday, March 21, 2019

रंगों की दुनिया और मैं - Rangon ki Duniya aur Main



रंगों में सराबोर है ये दुनिया मेरे इन स्याह दीवारों के बाहर,
सोचता हूं झांक कर आऊं खिड़की के उधर,
मगर जनता हूं अंधेरों से उजाले को देखने पर आंखें चौंधिया जाती हैं,
आदत ना हो रंगों की तो खून की सुर्ख़ी भी बेरंग नज़र आती है,
कैद में रहते- रहते सलाखें भी दोस्त समझ आती है,
मदहोश ज़माना है, बेहोश मैं भी,
उन्हें ज़िन्दगी की धुन और मुझे मौत की आहट सुनाई देती है।

Rangon mein sarabor hai ye duniya mere in siah deewaaron ke bahar,
Sochta hun jhaank kar aaun khidki se udhar,
Magar janta hu andheron se ujale ko dekhne par ankhen chaundhiya jaati hai,
Adat na ho rango ki to khoon ki surkhi bhi berang nazar ati hai,
Quaid mein rahte rahte salakhen bhi dost samajh aati hai,
Madahosh zamana hai, behosh main bhi,
Unhe zindgi ki dhun aur mujhe maut ki aahat sunai deti hai!

Thursday, October 25, 2018

रावण को जलाने में इतने मसरूफ़ हो!




















रावण को जलाने में इतने मसरूफ़ हो के भूल जाते हो,
हम सबके अंदर एक रावण है,
रंगीन मुखौटों के पीछे बेशर्म ख्वाहिशों का अस्लाह है।

रावण को जलाने में इतने मसरूफ़ हो के भूल जाते हो,
सीता हो या राम बदनाम कोई भी हो सकता है,
बस उंगली उठा कर बातों के तीर चलाना बड़ा आसान है।

रावण को जलाने में इतने मसरूफ़ हो के भूल जाते हो,
पटरियों पर दौड़ती भी एक आग है,
ये आग जो गुज़र जाए ज़िंदगियों पर तो परिवार बर्बाद है।

रावण को जलाने में इतने मसरूफ़ हो के भूल जाते हो,
हर एक पत्थर सेतु बंधन में एक किरदार है,
आंकड़ों की भीड़ में कुचल जाए जो वो भी इंसान है।

रावण को जलाने में इतने मसरूफ़ हो के भूल जाते हो,
हर उपदेश के पीछे एक कहानी है,
मैं कब कहता हूं, किसे कहता हूं और क्यूं कहता हूं, 
वो जानना ज़रूरी नहीं, समझ आए तो बेहतर,
वरना मैं कोई भगवान नहीं।।

Monday, January 1, 2018

नया साल मुबारक।



आज फिर वक़्त हमें उसी दोराहे पर लाया है,
जहां कुछ छूटता है, कुछ मिलने के वादे के साथ।

बारह कागजों के जो पुलिंदे हमने सजाये थे,
वो कटके बिखरने को हैं, घड़ी के हाथ।
हाँ, एक और नया पुलिंदा तैयार है, चंद कागजों और कई कसमों के साथ।

मगर इस दोराहे पर तो हर बार यूँही आके मिलते हैं,
कुछ ख्वाब, कुछ उम्मीदों,  कुछ वादों के साथ,
जो बदल गये टूटे, अधूरी, झूठे अल्फ़ाज़ों में,
उगते सूरज और ढलते चाँद के साथ।

फिर से तैयार हैं हम वक़्त का एक और सफर तय करने को,
अपने वजूद को तारीखों का मोहताज करने को,
हाथों में लेकर जाम, इस घड़ी के नाम, आप दोस्तों के साथ।।

Wednesday, November 4, 2015

रंग बदलते हैं! (Colors Change)



किसी को पसन्द हरा तो किसी को केसरिया, छुरे पे मगर सबके धार है तेज़,

नापसन्द है उन्हें बस मेरा सफ़ेद कुर्ता, लाल रंग से वो चाहते हैं इसे रंगना।

शुक्र है लहू पे रंग कोई चढ़ता नहीं, वरना बदल देते उसे भी वो मेरे नाम पर,

अस्पतालों में होता ये नया तरीका खून के मिलान का।

किसी को नापसन्द है मेरा खाना तो किसी को मेरा पहनावा,

होती है मेरी लाशों का ढ़ेर लगाकर उनकी संस्कृती की रक्षा।

किताबें वही हैं, बातें वही हैं, बस ऊपर जिल्द का रंग है बदलता,

मुझ काफ़िर का सर कलम करना ही है हर धर्म की शिक्षा।

कहते है विकास हुआ है मानव समाज का,

मगर उन्हें अब भी किसी की रोटी तो किसी की बेटी छीनने से फ़ुरसत नहीं।

दौर है आजकल पुरस्कारों का, किसी को देने का तो किसी को लौटाने का,

बस मेरे हाथ आया है ये पत्र तिरस्कार का।

कौन ग़लत, कौन सही, ये प्रश्न बहुत मुश्किल नहीं,

युगों से खिंची है सुर्ख़ लकीरें मेरे पटल पर, इसके जवाब में।

पूर्वजोँ की शक्ल में आँख, कान और मुँह बंद कर दिए मेरे,

स्वतंत्रता बस नाम की, गयी नहीं कहीं मनसिक परतंत्रता।

हर प्रश्न पे शब्द पत्थरों के मानिंद फेंके गए मुझपे कई हर ओर से,

सहिष्णुता के नाम पर है व्याप्त, ये कैसी असहिष्णुता।।

Saturday, August 29, 2015

राखी (Raakhi)

प्रभात के लिए तो राखी का त्यौहार ख़ास था। उसे हमेशा से ही राखी का बड़ा शौक था, जब भी वो अपने दोस्तों को इस दिन रखी बँधवाते देखता तो उसे भी दिल करता की उसकी भी कोई बहन होती जो उसे भी रखी बाँधती। 
पंद्रह साल पहले इसी राखी के दिन आख़िरकार उसका ये इंतेज़ार ख़त्म हुआ। तब से हर साल उसके लिए तो जैसे इस दिन की ये रीत बन गयी थी के वो अपनी बहन के लिए गिफ्ट्स के साथ-साथ राखी भी खुद ही खरीद लाता था। हर बार की तरह दुकान पे दुकानदार हो या रखी खरीदने आई बहनें, सभी उसे हैरानी से देखते, मगर प्रभात को कौन क्या सोचता इसकी सुध ही कहाँ होती आज के दिन। 

खरीदारी कर घर की ओर वापिस चलते-चलते प्रभात को पंद्रह साल पहले के वो दिन याद आ गये जब उसे लगा के जैसे भगवान ने उसकी सभी प्रार्थनाओं का फल दे दिया हो। उन दिनों उसकी माँ की तबीयत कुछ खराब चल रही थी तो पिताजी उन्हे डॉक्टर के पास ले गये। शाम जब प्रभात की माँ घर आई तो वो तुरंत उनसे लिपट गया और पूछने लगा आख़िर उन्हे क्या हुआ? उसकी माँ  ने उसे बताया की तेरे पिताजी कल रिपोर्ट लेने जायेंगे और डॉक्टर से पूछ आएँगे तब बताउंगी। अगले दिन प्रभात इसी बात से परेशान रहा के न जाने उसकी माँ को क्या हो गया था। शाम को जब पिताजी ऑफीस से आए डॉक्टर से मिलते हुए तो एक बार तो उसका दिल किया की वो सीधे उन्ही से पूछ ले. मगर प्रदीप को उसके पिताजी का गुस्सा मालूम था, बिना बात कोई भी सवाल-जवाब और ज़्यादा बात-चीत उन्हे पसंद नहीं थी। 

रात के खाने के बाद जब सोने से पहले माँ प्रभात के कमरे मे आई तो उसने तुरंत पूछा के डॉक्टर ने पिताजी से क्या कहा? माँ ने मुस्कुराते हुए उसके सिर पे हाथ फेरा और बोला, बेटा तुझे बड़ा मन था न के तेरी भी एक बहन हो, तेरे पिताजी को रिपोर्ट्स देख डॉक्टर ने कहा तेरी बहन आने वाली है। ये बात सुनते ही प्रभात की तो सारी नींद ही उड़ गयी, वो खुशी से उछलने-कूदने लगा। किसी तरह उसकी माँ ने उसे शांत कराया के इतनी रात शोर करने से उसके पिताजी की नींद खराब होगी और बिना बात उसकी पिटाई हो जाएगी। 

प्रभात ये सब सोचते-सोचते जल्द ही अपने घर के दरवाज़े पर पहुँच गया, वैसे भी वो कौन सा बहोत दूर गया था।  सबकुछ तो उसे मोहल्ले की दुकानो पे ही मिल गया था।  राखी, चॉक्लेट,और नया मोबाइल हेडफोन, सब समान संभाल के प्रभात ने डोरबेल बजाया। उसने माँ को पहले ही बोल रखा था, दरवाज़ा वो ही खोले। यूँ तो उसकी बहन को पता ही था के सुबह-सुबह वो कहाँ निकला है, फिर भी वो गिफ्ट्स उसे पहले से दिखाना नहीं चाहता था, सर्प्राइज़ एफेक्ट का मज़ा तो अलग ही होता है। 

घर का दरवाज़ा खुलते ही प्रभात की नज़र उसकी माँ के चहरे पे पड़ी, उस पल दो पल में वक़्त कुछ देर ठिठका और फिर पंद्रह साल पहले पहुँच गया। 

वो पहली राखी थी जिस दिन प्रभात यूँ बाजार से खरीदारी कर घर वापिस आया था। उसकी माँ कुछ दिन पहले से हॉस्पिटल मे थी पिताजी के साथ। प्रभात तो बस इसी इंतेज़ार में था के कब वो लोग घर वापिस आएँगे उसकी बहन के साथ। उसने तो ये भी ठान लिया था के इसबार वो रखी मिस नही करेगा, कुछ दिन इधर-उधर ही तो होंगे तो क्या हुआ आख़िर अब उसकी भी बहन है। यही सोच वो बहन के लिए खिलौने और राखी लाने सुबह ही निकल पड़ा था। 

घर के अंदर आते ही प्रभात को उसके पिताजी नज़र आए, तो उसकी तो जैसे खुशी का बाँध टूट ही गया। राखी के दिन ही उसे बहन मिल गयी, अब तो उसका नाम भी वो माँ से कह के राखी ही रखेगा, पिताजी चाहे कुछ भी कहें। दौड़ के वो अपने माँ-पिताजी के कमरे में गया अपनी बहन से मिलने और उसके लिए लाए खिलौने दिखाने। 

मगर प्रभात को क्या पता था के पिताजी को उसकी बहन के नाम पे ऐतराज़ हो ना हो, मगर उसके होने पे ऐतराज़ ज़रूर था. पंद्रह सालों से प्रभात की राखियों और गिफ्ट्स का इंतेज़ार उसकी बहन नहीं, उसकी माँ की सूनी नज़रें ही करती है।


Roman Script: 

Prabhat ke liye to Raakhi ka tyohaar khaas tha. Use humesha se hi Rakhi ka bada shauk tha, jab bhi wo apne doston ko is din rakhi bandhwate dekhta to use bhi dil karta ki uski bhi koi bahan hoti jo use bhi rakhi bandhti.

Pandrah saal pahle isi Rakhi ke din akhirkar uska ye intezaar khatam hua. Tabse har saal uske lie to jaise is din ki ye reet ban gayi thi ke wo apni behan k liye gifts ke sath-sath rakhi bhi khud hi khareed lata tha.  Har bar ki tarah dukaan pe dukandaar ho ya rakhi khareedne ayi aur behne sabhi use hairani se dekhte, magar Prabhat ko kon kya sochta iski sudh hi kahan hoti aaj ke din.

Khareedari kar ghar ki or wapis chalete-chalte Prabhat ko pandrah saal pahle ke wo din yaad agaye jab use laga ke jaise bhagwan ne uski sari prarthanao ka fal de dia ho. Undino uski maa ki tabiat kuch kharaab chal rahi thi to pitaji unhe doctor ke pas gaye. Sham jab Prabhat ki maa ghar ayi to wo turant unse lipat gaya aur puchne laga akhir unhe kya hua? Prabhat ki maa ne use bataya ki tere pitaji kal report lene jaynge aur doctor se puch ayenge to bataungi. Agle din Prabhat isi baat se pareshaan raha ke ja jane uski maa ko kya ho gaya tha. Shaam ko jab pitaji office se aaye doctor se milte hue to ek baar to uska dil kia ki wo sidhe jake unhi se pooch le. Magar Pradeep ko uske pitaji ka gussa maloom tha, bina baat koi bhi sawal-jawab aur zyada baat-chit unhe pasand nahi thi.

Raat ke khaane ke baad jab sone se pahle maa Prabhat ke kamre me aayi to usne turant poocha ke doctor ne pitaji se kya kaha. Maa ne muskurate hue uske sir pe haath fera aur bola, beta tujhe bada man tha na ke teri bhi ek bahan ho. Tere pitaji ko reports dekh doctor ne kaha teri bahan ane wali hai. Ye baat sunte hi Prabhat ki to sari neend hi ud gayi, wo khushi se uchalne-kudne laga. Kisi tarah uski maa ne use shaant karaya ke itni raat shor karne se uske pitaji ki neend kharab hogi aur bina baat uski pitai ho jayegi.

Prabhat ye sab sochte-sochte jald hi apne ghar ke darwaze per pahuch gaya, waise bhi wo kon sa bahot door gaya tha. Sab kuch to use mohalle ki dukano pe hi mil gaya tha. Rakhi, Chocolate,aur naya mobile headphone, sab saman sambhal ke Prabhat ne doorbell bajaya. Usne maa ko pahle hi bol rakha tha, darwaza wo hi khole. Yun to uski bahan ko pata hi tha ke subah-subah wo kahan nikla hai fir bhi wo gifts use pahle se dikhana nahi chahta tha, surprise effect ka maza to alag hota hai.

Ghar ka darwaza khulte hi Prabhat ki nazar uske maa ke chahre pe padi. Us pal do pal me waqt kuch der thithka or fir pandrah saal pahle pahuch gaya.

Wo pahli rakhi thi jis din Prabhat yun bazaar se Rakhi ki khareedari kar ghar wapis aya tha. Uski maa kuch din pahle se hospital me thi pitaji ke sath. Prabhat to bas isi intezaar me tha ke kab wo log ghar wapis ayenge uski behen ke sath. Usne to ye bhi than liya tha ke isbar wo rakhi miss nahi karega, kuch din idhar-udhar hi to honge to kya hua akhir ab uski bhi bahan hai. Yahi soch wo behen ke liye khilone aur rakhi lane subah hi nikal pada tha.

Ghar ke andar ate hi use pitaji nazar aye, to uski to jaise khushi ka bandh toot hi gaya. Rakhi ke din hi use bahan mil gayi, ab to uska naam bhi wo maa se kahke Rakhi hi rakhega, pitaji chahe kuch bhi kahe. Daud ke wo apne maa-pitaji ke kamre me gaya apni behen se milne aur uske liye laye khilone dikhane.

Magar use kya pata tha uske pitaji ko uske behen ke naam pe aitraaz ho na ho, magar uske hone pe aitraaz zaroor tha. Pandrah saalon se Prabhat ki raakhio aur gifts ka intezaar uski bahan nahi, uski maa ki sooni nazrein hi karti hai.  

Sunday, January 25, 2015

राहें... Raahein...



कोठे पे आज बड़ी रौनक है, माहौल ऐसा के जैसे कोई त्यौहार हो। पर जिसके लिए ये रौनक है वो तो ऐसे दुबक के बैठी है जैसे कोई बकरा हलाल या बलि होने से पहले होता हो। आज उसकी पहली रात जो है। बोली लगेगी उसके जिस्म के पहले इस्तेमाल पे। 

उस कोठे की रौनक देख आज तीन जोड़ी पैर अलग अलग दिशाओ से बढ़ रहे हैं, उस भीड़ का हिस्सा बनने जो पहले ही वहां मौजूद है… 


राम की मेहनत आज बड़ा रंग लायी है, अपने संघ दल में आज बड़ी इज्ज़त कमाई है उसने। महंत जी ने कहा के धर्म और संस्कृति का सच्चा रक्षक बन गया है वो आज। विदेशी अश्लील प्रभाव में फंसे नव युवक-युवतिओं को आज उसने सही राह दिखाई। उनमे से एक तो कुछ ज़्यादा ही हीरो बन रहा था, अंग्रेजी में वो और उसकी माशूका न जाने क्या-क्या बोले जा रहे थे, "moral policing" जैसे बड़े बड़े शब्द। राम को गुस्सा तब आया जब उन्होंने हिन्दू धर्म के खिलाफ कुछ बोल दिया। यूँ तो राम को ये नहीं पता के उसके अपने माँ-बाप कौन है,  महंत जी ने उसे बचपन से पाला है। हिन्दू धर्म उसके लिए धर्म  नहीं, जीने का तरीका है।  महंत जी उसे दल में शामील करते समय बोला था के हिन्दू धर्म सबसे महान है, इसकी रक्षा देशी और विदेशी दोनों ताकतों से करना एक सच्चे हिन्दू का कर्त्तव्य है। 

गुस्से में राम ने उस लड़के-लड़की को डंडे और रॉड से खूब पीटा, उसके साथिओ ने भी उसका पूरा साथ दिया।  राम ने तो शायद उन्हें मार ही दिया होगा पर पुलिस आने से उन्हें वहां से जाना पड़ा।  महंत जी की प्रशंशा और साथिओ की वाह-वाही ने आज उसका सीना फुला दिया। आज रात तो फिर पार्टी बनती है। उन्ही साथिओं से उसने सुना के कोठे पे आज कोई नया माल आया है...


अहमद को आज कुछ  अलग बोटी की तलाश है, रोज़-रोज़ जानवरों को हलाल करते-करते आज उसमे एक अलग जानवर की भूख़ सवार हो गयी थी। इन्सानी जिस्म की भूख कुछ अलग ही होती है, बिल्कुल वैसे ही जैसे एक जानवर को हलाल करने और एक इंसान की गर्दन काटने में होता है।  अहमद को ये फरक तो उस रोज़ ही पता चल गया था जिस रोज़ पिछले दंगो में उसने पहली बार एक इंसान को हलाल किया था।  मौलवी साहब ने कहा था के काफ़िर की जान लेना अल्लाह की इबादत है, और सच्चे मुसलमान का फ़र्ज़। उनकी बात तो अहमद के लिए अल्लाह का फरमान था।

अहमद की हवस की भूख आज वैसे ही उसपे सवार थी जैसे उस दिन उसके सर खून सवार था। ये एक ऐसी भूख थी जो उसकी बीवी नहीं मिटा पा रही थी अब। उसे लगा था दूसरी शादी करते वक़्त की उसकी हवस नई बीवी मिटा देगी। आखिर १७ साल की कमसिन कली थी वो। उसे देखा था पहली बार जिसदिन उसी दिन से उसे पाने की ज़िद सवार हो गयी थी. पता करने पे पता लगा के वो तो रिश्तेदारी में ही है। उसके अब्बु भी कोई कमाऊ लड़का खोज रहे है उसके लिए, पर दहेज़ लायक उनके पास कुछ नहीं था अपनी पांच और बेटियों की शादी कराने के बाद। फिर क्या था बस तीन अल्फ़ाज़ बोलने जितना ही वक़्त लगा उसे पहली बीवी छोड़ नयी बीवी घर लाने में।  आखिर दूसरी शादी करना कोई गुनाह तो नहीं, उसके अब्बा ने तो तीन-तीन शादियां करी थी एक वारिस की आस में। पर जब फिर भी खुदा की नेमत ना हुई और हकीम साहब ने बताया के उनसे बच्चा न होगा तो एक रात चुपके से अहमद को गोद ले लिया।  अपनी तरह पांच वक़्त का नमाज़ी, एक सच्चा मुसलमान बनाया।

अहमद की दूसरी शादी को साल भर से उपर हो गए अब तो, उसकी बीवी ने दो महीने पहले ही अहमद के बच्चे को जन्म दिया। गुज़रे वक़्त और बच्चे के बाद अब उसकी बीवी की कशिश भी जाती लग रही थी अहमद को।  अब उसमे वो गर्मी नहीं रही जिसकी अहमद को भूख हो। उपर से बच्चे की तीमारदारी में उसे वक़्त ही कहां शौहर के लिए?! आज दूकान पे जब कुछ ग्राहकों की बातों से पता चला के लाइन पार कोठे पे एक नयी बकरी हलाल होने को है, तो सुनके अहमद की रगों में फिर से वही गर्म खून उबल गया और दूकान बंद कर उसके कदम घर की जगह कोठे की राह बढ़ चले...


जॉन को अभी उसके जानने वाले शायद पहचान भी ना पाये। वो जो चर्च का छोटा पादरी था आज एक अलग भेस में था। आज उसकी मंज़िल चर्च नहीं कही और थी। आज रात उसके कदमों की सुबह ही तय हो गयी थी, जब कॉन्फेशन बॉक्स में वो बैठा उस औरत की बात सुनने।

आज चर्च के बड़े पादरी जिन्होंने जॉन को बचपन से पाला था वो बीमार थे तो उनकी जगह जॉन चर्च के कार्यक्रमों का संचालन कर रहा था।  जब वो औरत जो यूँ तो क्रिस्चियन नहीं लग रही थी वहां आयी और कॉन्फेशन बॉक्स की तरफ बढ़ी तो जॉन ने बड़े पादरी की जगह वहां भी ली। उसकी बातों से पता चला के वो औरत पास के कोठों में से एक से आई वेश्या थी।  उसे आज वक़्त ने बड़े अजीब मुकाम पे ला खड़ा किया था।  आज उसकी बेटी की पहली रात थी। उस औरत की बिल्कुल मर्ज़ी नहीं थी की उसकी बेटी भी ये गन्दा काम करे, उसके जिस्म को भी लोग नोच खाए जैसे सालों से उसकी माँ के साथ हुआ। पर एक वेश्या की बात कब कहाँ सुनी गयी! ना उस दिन जिस दिन उसे उस कोठे पे बेचा गया था, ना उस दिन जब जब उसके तिड़वा बच्चों को उससे छीन के न जाने कहाँ दे दिया गया। आखिर एक कोठे पे मर्दजात बच्चों का क्या काम? काश आज उसके तीनों बेटे उसके साथ होते तो शायद अपनी बहन को यूं सरे बाजार नीलाम ना होने देते। इन्हीं गमो में डूबी वो बेबस औरत अपने और अपने बच्चों की किस्मत पर रो रही थी।

उस रोती हुई औरत की कहानी में मगर जॉन को एक अलग सा मज़ा मिला। कुंवारी लड़किओं का शौक था उसे, और पादरी होते हुए ऐसे मौके उसे रोज़ कहाँ मिलते हैं।  पिछली बार एक जवान नन के चक्कर मे वो पकड़े जाते-जाते बच गया था। वो नन मां बन गयी थी। बात फादर को पता चले या बाहर जाये, इसके पहले ही जॉन ने उस नन को एक रात दूर गाँव ले जाकर मार दिया। जॉन को तो बस कुंवारी का नयापन और मासूमियत पसंद थी, उसी को लूटने में उसे मज़ा आता था। अपने इस शौक को पूरा करने के मौके कम ही आते थे।  वो तो बस कभी-कभी चर्च में साफ़-सफ़ाई के लिए आने वाले गांव के लड़को तक से काम चला लेता था। आज फिर मगर महीनो बाद एक कुंवारी लड़की का मज़ा लेने का मौका मिला है। आज वो किसी कीमत पे ये मौका नहीं छोड़ेगा।  बोली चाहे कितनी भी लगे उसकी बोली सबसे ऊपर होगी। ...


बाजार अब अपने शबाब पे है, ख़ास खरीदारों का स्वागत करते हुए।  देखना ये है अब कौन लगायेगा सबसे बड़ी बोली?!



Roman Script:



Kothe pe aaj badi ronak hai. Mahaul aisa k jaise koi tyohar ho. Par jiske liye ye ronak hai wo to aise dubk ke baithi hai jaise koi bakra halal ya bali hone se pahle hota ho! Aj uski pahli raat jo hai! Boli lagegi uske jism k pahle istemaal pe.

Us kothe ki ronak dekh aj 3 jodi pair alag alag dishao se badh rahe hai, us bheed ka hissa banne jo pahle hi waha maujood hai...

Raam ki mehnat aj bada rang layi hai, apne sangh dal me aaj badi ijjat kamai hai usne. Mahant ji ne kaha k dharm aur sankriti ka sachcha rakshak ban gaya hai wo aj. Videshi ashleel prabhav me fase kai nav yuvak-yuvatio ko aj usne sahi raah dikhai. Unme se ek to kuch zyada hi hero ban raha tha, angereji me wo aur uski mashooka na jane kya-kya bole ja rahe the, "moral policing" jaise bade bade shabd. Raam ko gussa tab aya jab unhone Hindu dharam k khilaf kuch bol dia. Yun to raam ko ye nahi pata k uske apne maa-baap kon hai par bachpan se hi Mahant ji ne use bachpan se pala hai. Hindu dharm uske lie dharm nahi jine ka tarika hai. Mahant ji use dal me shamil karte waqt bola tha ke Hindu dharm sabse mahaan hai, iski raksha deshi aur videsi dono takato se karna ek sachche Hindu ka kartavya hai.

Gusse me raam ne us ladke-ladki ko dande aur rod se khub pita, uske sathio ne bhi uska pura sath diya. Raam ne to shayad unhe maar hi dia hoga par police k aane se unhe janna pada. Mahant ji ki prashansa aur sathio ki Waah-wahi ne aj uska seena fula dia. Aj to raat fir party banti hai. Unhi sathio se usne suna ke kothe pe aj koi naya maal aya hai...


Ahmad ko aj kuch alag boti ki talaash hai, roz-roz janwaro ko halaal karte-karte aj usme ek alag janwar ki bhookh sawar ho gayi thi. Insani jism ki bhook kuch alag hi hoti hai, bilkool waise hi jaise ek janwar ko halal karne aur ek insaan ki gardan katne me hota hai. Ahmad ko ye fark to us roz hi pata chal gaya tha jis roz pichle dango me usne pahli baar ek insaan ko halaal kia tha. Maulvi sahab ne kaha tha ke kafir ki jaan lena allah ki ibadat hai, aur sachche musalman ka farz. Unki baat to Ahmad k lie allah ka farmaan tha.

Ahmad ki hawas ki bhook aj waise hi uspe sawar thi jaise us din uske sir khoon sawar tha. Ye aisi bhook thi jo uski biwi nahi mita pa rahi thi ab. Use laga tha dusri shaadi karte waqt ki uski hawas nayi biwi mita degi. Akhir 17 saal ki kamsin kali thi wo. Use dekha tha pahli baar jisdin usi din se  use pane ki zid sawar ho gayi thi. Pata karne pe pata laga ke wo to rishtedari me hi hai. Uske abbu bhi koi kamau ladka khoj rahe the uske liye, par dahej layak unke pas kuch nahi tha apni paanch aur betio ki shaadi karane kebaad. Fir kya tha bas teen alfaaz bolne jitna hi waqt laga use pahli biwi chod nayi biwi ghar lane me. Akhir dusri shaadi karna koi gunaah to nahi, uske abba ne to teen-teen shaadiya kari thi ek waris ki aas me. Par jab fir bhi khuda ki nemat na hui aur hakeem sahab ne bataya k unse baccha na hoga to unhone ek raat chupke se Ahmad ko god le lia. Apni tarah 5 waqt ka namaazi, ek sachcha musalman banaya.

Ahmad ki dusri shaadi ko saal bhar se upar ho gaye ab to, uski biwi ne do mahine pahle hi Ahmad k bacche ko janm dia. Waqt aur bacche k baad ab uski kashish bhi jaati lag rahi thi Ahmad ko. ab usme wo garmi nahi rahi jiski use bhook ho. Upar se bacche ki timardari me use waqt hi kahan shohar k lie?!. Aj dukaan pe jab kuch grahako ki baaton se pata chala ke line par kothe pe ek nayi bakri halal hone ko hai, to sunke Ahmad ki rago me firse wahi garm khoon ubal gaya aur dukaan band kar uske kadam ghar ki jagah kothe ki raah badh chale...


John ko aj uske janne wale shayad pahchan bhi na paye. Wo jo church ka chota padri tha aj ek alag bhes me tha. Aj uski manzil church nahi kahi aur thi. Aj raat uske kamdo ki disha subah hi tay ho gayi thi, jab confession box me wo baitha us aurat ki baat sunne.

Aj church ke bade padri jinhone use bachpan se pala tha wo bimar the to unki jagah John church ke karyakramo ka sanchalan kar raha tha. Jab wo aurat jo yun to Christian nahin lag rahi thi waha ayi aur confession box ki taraf badhi to John ne bade padri ki jagah wahan bhi li. Uski baton se pata chala ke wo aurat pas k kotho me se ek se ayi veshya thi. Use aj waqt ne bade ajeeb mukam me la khada kia tha. Aj uski beti ki pahli raat thi. Us aurat ki bilkool marzi nahi thi ki uski beti bhi ye ganda kaam kare, uske jism ko bhi log noch khaye jaise salo se uski maa k sath hua. Par ek veshya ki baat kab kahan suni gayi. Na us din jis din use us kothe pe becha gaya tha, na us din jis din uske tirwa baccho ko usse cheen k na jane ka de dia gaya tha. Akhir kothe pe mardzaat baccho ka kya kaam? Kash aj uske teeno bete uske sath hote to shayad apni behan ko yun sare bazaar neelaam na hone dete. Inhi gumon me doobi wo bebas aurat  apne aur apne baccho ki kismat per ro rahi thi.

Us roti aurat ki kahani ne magar John ko ek alag sa maza mila. Kunwari ladkio ka shauk jo tha use, aur padri hote hue aise mauke use roz kaha milte hai. Pichli baar ek jawan nun ke chakkar me wo pakde jate jate bach gaya tha. Wo nun ma ban gayi thi. Baat father ko pata chale ya bahar jaye, iske pahle hi John ne us nun ko ek raat dur ganv le ja ke maar dia. John ko to bas kunwari ka nayapan aur masumiyat pasand thi, usi ko lutne me use maza ata tha. Apne is shauk ko pura karne ke mauke kum ate the. Wo to bas kabhi-kabhi church me saf-safai ke liye ane wale ganv ke ladko tak se kaam chala leta tha. Aj fir magar maheeno baad fir ek kunwari ladki ka maza lene ka mauka mila hai. Aj wo kisi keemat pe ye mauka nahi chodega. Boli chahe kitni bhi lage uski boli sabse upar hogi...


Bazaar ab apne shabab pe hai, khaas kharidaro ka swagat karte hue. Dekhna ye hai ab kon lagayega sabse badi boli!

Sunday, March 24, 2013

कूड़े के ढेर का पेड़... Kude Ke Dher Ka Ped...


कूड़े के ढेर में खड़ा सूखी टहनियों  से  भरा  वो  एक  पेड़...
मानो  यूँ कोई  ज़िन्दगी तलाशता हुआ मौत की देहलीज़ पर।
देख के लगता है याद करता है वो वक़्त जब पतझर के दिन भी बहार होते थे...
पास उसके एक बाज़ार लगता था, जिसकी चहल-पहल से उसकी शामें खुशहाल  होती थी।।

Kude ki dher me khada sukhi tahnio se bhara wo ek ped...
Mano yun koi zindagi talashta maut ki dehliz par!
Dekh k lagta hai yaad karta hai wo waqt jab patjhar k din bhi bahaar hote the...
Pas uske yun ek bazar lagta tha, jiski chahal-pahal se uski shamein khushhal hoti thi!!

कभी उसकी टहनियों पे बर्तन तो कभी खिलोने लटकते थे,
आज तो खुद की पत्तियों के भी निशां नहीं मिलते!
अब न वो क्रेता रहे न वो विक्रेता, कभी कभी मिल जाता है वो एक बुढ़ा कुड़ेवाला...
मगर उस गरीब के लिए तो है बस कूड़े का ही मोल, बूढ़े पेड़ से क्यूँ बोले वो दो मीठे बोल?
रहते है उस कबाड़खाने में कुछ जानवर...कुत्ते, चूहे, सांप, छछुंदर...
पर वो भी नहीं भटकते उसके आस-पास, मौत की मनहूसियत की गंध आती होगी उन्हें शायद।।

Kabhi uski tahniyon pe bartan to kabhi khilone latakte the,
Aj to khud ki pattion ke bhi nishan nahi milte!
Ab na wo kreta(buyers) rahe na vo vikreta(sellers), 
kabhi kabhi mil jata hai wo ek budha kudewala...
Magar us gareeb k liye to hai bas kude ka hi mol, budhe ped se kiu bole wo do mithe bol?
Rahte hai us kabarkhane me kuch janwar...Kutte, chuhe, sanp, chachundar...
Par wo bhi nahi bhatakte uske aas-pas, maut ki manhusiyat ki gandh ati hogi unhe shayad!!


पर फिर भी आस नहीं मरी है अब तक उसकी, पास ही कहीं लगता है वो बाज़ार अब भी …
वोही चहल-पहल कुछ ऐसे बुलाती है उसे, जवां बसंत की याद दिलाती है उसे!
उम्मीद है उसे फिर उसी रौशनी में डूब जाने की, इन अंधेरो से निकलने की…
इस बसंत ने सूखा ही रखा तो क्या, उम्मीद है उसे आने वाले बारिश के बूंदों की… 
ज़िन्दगी फिर से जीने की!!!

Par fir bhi aas nahi mari hai ab tak uski, pas hi kahi lagta hai wo bazar ab bhi...
Wohi chahal-pahal kuch aise bulati hai use, jawa basant ki yaad dilati hai use!
Ummeed hai use fir usi roshni me dubne jane ki, in andhero se nikalne ki...
Is basant ne sukha hi rakkha to kya, umeed hai use ane wale barish ki bundo ki...
Zindagi fir se jeene ki!

Saturday, February 11, 2012

मायूस सी ज़िन्दगी का जशन!



शायर तो बहोत आये, चले भी गए...
लिक्खा उन्होंने बहोत खूब, बस हम ही समझ न पाए,
नादानी मे कर बैठे कुछ ऐसी गलती, के पागल भी हमे पागल कहने लगे!


किस्मत ने सूरत-ए-हाल कुछ यूँ बयां किये, के हमारे अलफ़ाज़ भी कम पर गए...
दुनिया ने अनपढ़ कहा, हम भी खामोश रह गए!


चाहतों और नफरतों की उलझने कुछ यूँ उलझी, सुलझाते-सुलझाते ज़िन्दगी ख़त्म हो चली...
क्या खोया, क्या पाया, ये हिसाब फिर भी लगा न सके!


किसी ने कहा मौत से इतना ना दिल लगाओ, जब भी मिलती है दर्द बहोत देती है...
किसीने शायद सुना नहीं ये, कराहते रहे हम ज़िन्दगी भर कैसे!


मय्यत का मेरे इंतज़ार हमे भी है, और उनको भी...
हम ज़िन्दगी से आज़ादी का जशन  मनाएंगे, और उन्हें भी अपने साये से आज़ाद कर जायेंगे!


जशन-ए-आज़ादी का माहोल कुछ यूँ बनायेंगे, मौत भी शरमा जाएगी ये देखकर...
टुकड़ो-टुकड़ो में जो थोड़ी सी ज़िन्दगी कमाई थी हमने, जला दी वो भी आतिशबाज़ियों में!



Roman Script: 

Mayus Si Zindagi Ka Jashn!

Shayar to bahot aye, chale bhi gaye...
Likkha unhone bahot khub, bas hum hi samajh na paye.
Nadani me kar baithe kuch aisi galti, k pagal v hume pagal kahne lage!

Kismat ne surate-e-haal kuch yun bayan kiye, k humare alfaaz bhi kum par gaye...
Duniya ne anpadh kaha, hum bhi khamosh rah gaye!

Chahaton aur nafraton ki uljhane kuch yun uljhi, suljhate-suljhate zindagi khatm ho chali...
Kya khoya, kya paya, ye hisaab fir bhi laga na sake!

Kisi ne kaha maut se itna na dil lagao, jab bhi milti hai dard bahot deti hai...
Kisine shayad suna nahi ye, karahte rahe hum zindagi bhar kaise!

Mayyat ka mere intezaar hume bhi hai, aur unko bhi...
Hum zindagi se aazadi ka jashn manayenge, aur unhe bhi apne saye se azaad kar jayenge!

Jashn-e-aazadi ka mahol kuch yun banayenge, maut bhi sharma jayegi ye dekhkar...
Tukdo-tukdo me jo thodi si zindagi kamayi thi humne, jala di wo bhi aatishbaziyon me!

Tuesday, September 13, 2011

कहीं गुम हूँ मैं...



इस शोर में कहीं गुम है मेरी आवाज़....
इस भीड़ में कहीं गुम है मेरा वजूद...
इस दुनिया में कहीं गुम हूँ मैं...

इन्ही सभी में कही ढूँढना है मुझे,
नकाबों  को उतार के, असली शक्ल पहचानना है मुझे,
दबा-कुचला सा मैं, जो कहीं खो गया अपने आप में!

उन चन्द कांच के प्यालों में,
मिलता है कभी-कभी मेरा अक्स मेरे ही लिबास में,
शख्सियत भी कुछ जानी-पहचानी सी है,
फिर भी लगता है के ये मैं नहीं…
मैं तो कहीं खो गया हूँ इस हुजूम में, किसी और ही शख्सियत में!

बस अब और नहीं, काफी कुछ कह चुका हूँ मैं,
सुनेगा कौन, ये मेरी आवाज़ भी अब मेरी नहीं,
कुछ खुद की तलाश में और कुछ तलाशने खुदमे,
अपने खोये वजूद को…
अब शायद खो गया हूँ मैं, मौत की पनाह में!!!

Sunday, May 29, 2011

क्यूँ जिंदा?!



क्यूँ हूँ मैं जिंदा अब तक?
शायद मुझे चाहत है ज़िन्दगी की,
या शायद ज़िन्दगी को मेरी चाहत है!
या फिर मजबूरी है ये दुनिया की,
मुझे झेलने की, मेरे वजूद से कुछ फायदा लेने की!!

ये इल्ज़ामात गैरों पे लगाना फज़ूल है,
मेरी ज़िन्दगी किसी की अमानत तो नहीं,
ये तो वो गलती है जो मेरे वालिद ने की,
और मैंने गुज़ारी है!
अब खत्म करें भी तो करें कैसे इसे?
जिम्मेदारियों के बोझ तले यूँ दबा हूँ मैं,
नहीं टूटती ये जो ज़िन्दगी की मज़बूत बेड़ियाँ हैं!!

ये मेरी ही कमज़ोरी है,
या मेरी नासमझी है...
जो जिंदा हूँ मैं अब तक,
ज़िन्दगी जब नहीं प्यारी है!
मौत का ये बेवकूफाना इंतज़ार कैसा,
जब ज़िन्दगी और मौत मेरी ही मुट्ठी में हैं!
अब देर कैसी मेरी महबूबा को गले लगाने में,
मौत की खुशनुमा पनाहों में जाना है!!

न जी सका मैं किसी के लिए,
ना ही मर सका मैं अपने सुकून के लिए!
ये क्या कशमकश है,
ज़िन्दगी और मौत की ये कैसी रस्साकशी है?!
चन्द कदम ही तो अब मुझे उठाने है,
ज़िन्दगी से मौत की ओर...
ये तो बस आज और कल की सच्चाई है!!!

Monday, April 11, 2011

आखिरी मंज़िल


बस ये दो-चार पल की ज़िन्दगी है प्यारे,
जी ले...
क्या पता फिर कौन तेरा रहे, ना रहे!

तुझे गम है किसका,
जो न तेरा था, ना है, ना रहेगा...
प्यार हो या दौलत, तेरी लाश के पास कुछ नहीं मिलेगा!

मैं जानता हूँ ख्वाबो के टूटने का गम क्या होता है,
मैं जानता हूँ मंज़िल के छुटने का दर्द क्या होता है...
मगर ये जो सफ़र है ज़िन्दगी का, वो नाम है चलते जाने का,
ये सोचना नहीं, के क्या खोया है और क्या कुछ पाया है!

मौत से डरता क्यूँ है मेरे दोस्त,
इसी ने तो तुझे, मुझे, सबको बांधे रक्खा है...
वरना ज़िन्दगी की क्या मजाल,
जो देश, धर्म और जाती की क्रूर दीवारों को तोड़ कर हमें जोड़े...
ज़िन्दगी ने हमें तोड़ा है, जहाँ मौत ने हमें जोड़ा है! 

Friday, January 28, 2011

जनाज़ा


शायद मेरे ज़ेहन में एक ख्वाब सा उमरा है,
कहीं पे किसी का जनाज़ा निकला है…
कहते हैं के वो दुश्मन है,
लाश दिखती तो हमारी है!

हमने सोचा के दामन पकड़ लें किसी का,
पर आज जिसे चाहा है, कल उसी ने छोड़ा है…
मेरे दोस्त ये भूलना नहीं,
कल जो हमारा था, आज वो पराया है!

जीना तो सबको आता है,
मौत का ही एक नमूना है…
सब कहते हैं के ज़िन्दगी है,
हमने तो मौत को जिया है!

कोई आये या ना आये महफ़िल में,
हम तो यूँही बैठे है…
तमाशा हमारा है, और हमी तमाशाई हैं!
यूँ दिखावे के आंसू ना बहा ऐ दोस्त,
आखिर ये जनाज़ा हमारा है!!

Sunday, December 26, 2010

तलाश



हर बार दिल टूटा, हर बार टुकड़े जोड़े...
हर बार दिल टूटा, हर बार टुकड़े जोड़े,
युही तोड़ते-तोड़ते और जोड़ते-जोड़ते, ना जाने कितने चाहत के मक़ाम छूटे!


समझा नहीं है शायद ये दिल फिर भी...
समझा नहीं है शायद ये दिल फिर भी,
कोई हमारा नहीं, ना हम है किसी के!


ढूंडा किये हम बस अपनों को परायों में...
ढूंडा किये हम बस अपनों को परायों में,
अपने भी चल दिये हमे पराया कर के!


साथ छोड़ा नहीं हमने किसी का...
साथ छोड़ा नहीं हमने किसी का,
छूट गये साथी यूँही मिलते-मिलते!


ज़िन्दगी की राह यूँही गुज़री किसी हमराह को तलाशते हुए...
ज़िन्दगी की राह यूँही गुज़री किसी हमराह को तलाशते हुए,
ना वो मिला, ना राह मिली, हम भी खो गये कहीं चलते-चलते!


हमने सोचा के शायद कुछ कमी हममे ही है...
हमने सोचा के शायद कुछ कमी हममे ही है,
ज़िन्दगी गुज़र गयी उन्हें पूरा करते-करते!


चाहत को छोड़, मौत की चाहत की है...
चाहत को छोड़, मौत की चाहत की है,
वो भी ना रूठ जाये कहीं हमारे मरते-मरते!!!

Thursday, July 22, 2010

मुझे जीने नहीं देती, मरने नहीं देती!




मैंने तो छोड़ दिया था दुनिया को, 
पर ये दोगली दुनिया मुझे जीने नहीं देती, मरने नहीं देती!


मैंने तो तोड़ दिया था सब रिश्तों को,
फिर भी ये रिश्तों की ज़ंजीर नहीं टूटती!


मैंने तो कर लिया था इरादा, बस अपने-आप में खोये रहने का, 
फिर भी ये दोस्तों की महफ़िल छूटे नहीं छूटती!


मैं तो चला जा रहा था दूर कहीं,
पर ये बस्ती, ये गलियां, मुझसे दूर नहीं होती!


मैं नहीं चाहता थोपुं उनपे खुदको, जिन्हें हमारी चाहत नहीं, 
फिर भी उनके चेहरे मेरे नज़रों से होते दूर नहीं!


मैंने तो मांगी है ज़िन्दगी से बस मौत, 
मुझ बदनसीब को वो भी हासिल नहीं होती!


मैं जियूं तो लोग कहें नाकाबिल,
मैंने जो की ख़ुदकुशी तो दुनिया मुझे बुज़दिली का तमगा देगी! 



मैंने तो छोड़ दिया था दुनिया को, 
पर ये दोगली दुनिया मुझे जीने नहीं देती, मरने नहीं देती!

Friday, February 19, 2010

खड़ा हूँ किनारे पे हाथ में जाम लिए...




खड़ा हूँ किनारे पे हाथ में जाम लिए,
सोचता हूँ कौन डूबोयेगी मुझे पहले,
ये बहता हुआ पानी या ये जलती हुई शराब!

फिर सोचता हूँ क्यूँ इतना सोचता हूँ मैं,
जब किसी ने नहीं सोचा मेरा हाथ छुड़ा के चले जाते वक़्त,
यूँ अकेला इस अँधेरे जंगल में छोड़ जाते वक़्त,
मुड के एक बार भी देखा नहीं मेरी पुकारती आँखों की तरफ,
दिखती उन्हें क्या होती है ज़िन्दगी का हाथ छूटने की तड़प!

सोचता हूँ  क्यूँ गम है मुझे किसी के छोड़ जाने से,
मेरे मनहूस साये से किसी के दूर जाने पे,
अच्छा ही तो है अब और कोई तबाही ना होगी मेरी वजह से,
बोझ होने की तोहमत अब तो हटेगी मेरे वजूद से,
एक और क़त्ल का इलज़ाम ना आयेगा मेरे सर पे,
अब तो जाना भी नहीं वहां वापिस एक बार जो चला आया हूँ मैं!

अब धीरे-धीरे मेरी सोच भी छूट रही है मुझसे,
ये कैसा अँधेरा छाता जा रहा है मेरे ज़हन पे,
इस अँधेरे में पानी सुर्ख और मेरा जाम खाली क्यूँ नज़र आता है मुझे,
ये  मीठा सा क्या अहसास हो रहा है मुझे,
जैसे कोई महबूबा पुकारती है मुझे अपने आगोश में आने के लिए,
मगर अब तो बंद होती जा रही है मेरी आखें,
दीदार भी मुमकिन नहीं उसके चहरे का जिसने साथ सुलाया है मुझे !!!

Wednesday, December 2, 2009

बहोत ज़्यादा है!!




इस देश में हर चीज़ बहोत ज़्यादा है!
जानता हूँ, मानोगे नहीं, क्यूँकि यहाँ अविश्वास बहोत ज़्यादा है!
देश गरीब है तो गरीबों की गरीबी बहोत ज़्यादा है…
पर ध्यान से देखो तो यहाँ अमीरों की अमीरी बहोत ज़्यादा है!
कहीं पे भूख बहोत ज्यादा है तो कहीं पे भोग बहोत ज़्यादा है!!

ये देश बहोत बड़ा है तो यहाँ लोग भी बहोत ज़्यादा है!
वैसे तो हमारा देश एक है मगर, यहाँ प्रदेश बहोत ज़्यादा है!
यूँ  तो हमारी संस्कृति की उम्र बहोत ज़्यादा है…
इसलिए शायद उसकी बूढी हड्डियों में चोट का अहसास बहोत ज़्यादा है!
संविधान कहता है धर्मनिरपेक्ष देश है मगर धर्म के नाम पे लुटेरे बहोत ज़्यादा है!
पीने को साफ़ पानी मिले ना मिले यहाँ बहाने को खून बहोत ज़्यादा है!!

ऑफिसों में फाइलों का बोझ बहोत ज़्यादा है तो बाबुओं की चाय-पानी की प्यास बहोत ज़्यादा है!
हर एक वोट में ताकत बहोत ज़्यादा है तो नेतओं के पास नोट बहोत ज़्यादा है!
सब कहते है यहाँ के सिस्टम में खराबी बहोत ज़्यादा है पर क्या करें हमें काम बहोत ज़्यादा है!
इस देश को एक सच्चे नेता की ज़रूरत बहोत ज़्यादा है पर इस देश में राजनेता बहोत ज़्यादा है!!
कहने को तो हम एक हैं पर यहाँ “मैं” बहोत ज़्यादा है!!

कहना तो मुझे भी बहोत ज़्यादा है क्युंके सवालात बहोत ज़्यादा है!
पर जानता हूँ आपके समय की कीमत बहोत ज़्यादा है!
क्या करें, इस देश में हर चीज़ बहोत ज़्यादा है!
जानता हूँ, मानोगे नहीं, क्यूँकि यहाँ अविश्वास बहोत ज़्यादा है!!!

Tuesday, November 10, 2009

मैं क्यूँ मानु धर्म को?




मैं क्यूँ पूजूं पत्थर की मूरत को जिसे किसी इंसान ने ही सूरत दी हो?
मैं क्यूँ मानु सही उस राह को जिसे किसी इंसान ही ने  खुदा की राह कहा हो?
क्यों कहूँ मैं भगवान् उस पुरषोत्तम को जिसमे गलतियाँ भरी हो?
जब हर इंसान में ही बसे इश्वर तो क्यों मानु उसे पैगम्बर जो खुदको इश्वर-पुत्र  कहता हो?
धर्म के बाज़ार में हर विक्रेता कहे मेरा खुदा बड़ा है …
मैं क्यूँ  खरीदूं ऐसी वस्तु को जिसका मोल किसी भाई का खून हो?
अगर धर्म है खुदा की नेमत तो मैं क्यूँ मानु उसकी इंसानी परिभाषा को?