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Sunday, October 15, 2023

तमाशा










फसादों में उलझे हो, न जीते हो न जीने देते हो,

जिंदा हो मगर मौत का खेल खेलते हो।

तुम्हें मालूम नहीं फर्क - निर्दोष और दोषी का,

तुम्हें आता है सिर्फ खेल बर्बादी का।


देकर बलि कमज़ोर और मजलूमों की,

भरते हो दम सच्चाई और खुदाई का। 

चाहे नाम लो किसी भी ऊपर वाले का,

दुश्मन इंसानियत के हो तुम,

सही मानों में तुम ही हैवान हो;

और तुम्हारा ऊपरवाला - नकारा, बेगैरत,

जिसकी खुदाई के नाम पे चलता है,

तुम्हारा ये कारोबार हैवानियत का।


इससे तो बेहतर थे हम जानवरों के मानिंद,

बस एक भूख ही अपना खुदा था।

चलो कर दो अंत तुम्हारी-हमारी इस बीमार नस्ल का, 

होगा तभी शायद सृजन एक नए मकबूल नस्ल का।


तमाशबीनों ये तमाशा देखते रहो, 

लहू के छींटों का स्वाद लेते हो,

जो आज ये बहता रक्त तुम्हारा नहीं, 

रक्तबिजों का हौसला बढ़ाते हो।

कभी बिकेगा गोश्त तुम्हारा भी इसी मंडी में,

तुम्हारी जिंदगी की भी लगेगी बोली,

आखिर तुम भी हो एक बिकाऊ समान, इसी बाजारू दुनिया में,

जहां ज़िंदगी सस्ती, मगर उसका तमाशा बिकता बड़ा महंगा है।

 

Thursday, January 2, 2020

ठंड बहोत है!

ठंड बहोत है, मौसम में या दिलों में?
जम गया है खून, पानी जैसे, सड़कों पे या दिलों में?
कुछ लोग आग लगा के खुश हैं, देश में या दिलों में?
दोस्त, पड़ोसी, सब अजनबी, ये दूरियां घरों में या दिलों में?
तू कौन है, मैं कौन हूं, नकाब चहरों पे या दिलों पे?
ये नफरत है या फितरत, ज़हर किताबों में या दिलों में?
जश्न ये नए साल का, सिर्फ तारीख़ के पन्नों में या दिलों में? 
खुशी मनाएं किस बात का, झूठे, वादों पे या दिलों पे?
बातें करते सभी हैं, मगर यकीन, शब्दों पे या दिलों पे?
मसीहा हैं, रहनुमा हैं, खुदा भी है, महलों में या दिलों में?
मुझे खामोश करने में लगे हो, गलती मुझमें है या दिलों में?

Wednesday, November 4, 2015

रंग बदलते हैं! (Colors Change)



किसी को पसन्द हरा तो किसी को केसरिया, छुरे पे मगर सबके धार है तेज़,

नापसन्द है उन्हें बस मेरा सफ़ेद कुर्ता, लाल रंग से वो चाहते हैं इसे रंगना।

शुक्र है लहू पे रंग कोई चढ़ता नहीं, वरना बदल देते उसे भी वो मेरे नाम पर,

अस्पतालों में होता ये नया तरीका खून के मिलान का।

किसी को नापसन्द है मेरा खाना तो किसी को मेरा पहनावा,

होती है मेरी लाशों का ढ़ेर लगाकर उनकी संस्कृती की रक्षा।

किताबें वही हैं, बातें वही हैं, बस ऊपर जिल्द का रंग है बदलता,

मुझ काफ़िर का सर कलम करना ही है हर धर्म की शिक्षा।

कहते है विकास हुआ है मानव समाज का,

मगर उन्हें अब भी किसी की रोटी तो किसी की बेटी छीनने से फ़ुरसत नहीं।

दौर है आजकल पुरस्कारों का, किसी को देने का तो किसी को लौटाने का,

बस मेरे हाथ आया है ये पत्र तिरस्कार का।

कौन ग़लत, कौन सही, ये प्रश्न बहुत मुश्किल नहीं,

युगों से खिंची है सुर्ख़ लकीरें मेरे पटल पर, इसके जवाब में।

पूर्वजोँ की शक्ल में आँख, कान और मुँह बंद कर दिए मेरे,

स्वतंत्रता बस नाम की, गयी नहीं कहीं मनसिक परतंत्रता।

हर प्रश्न पे शब्द पत्थरों के मानिंद फेंके गए मुझपे कई हर ओर से,

सहिष्णुता के नाम पर है व्याप्त, ये कैसी असहिष्णुता।।

Thursday, December 18, 2014

Where is he?



Where is he...
in whose name people put their faith and life,
in whose name both saints and demons come alive,
in whose name men are divided from men,
in whose name blood flows faster than water,
in whose name children are baptised or butchered,

No matter the name, no matter the face,
Under his almighty gaze,
Innocent suffer, flourishes hate,
The search goes on...
Long live his grace!