नापसन्द है उन्हें बस मेरा सफ़ेद कुर्ता, लाल रंग से वो चाहते हैं इसे रंगना।
शुक्र है लहू पे रंग कोई चढ़ता नहीं, वरना बदल देते उसे भी वो मेरे नाम पर,
अस्पतालों में होता ये नया तरीका खून के मिलान का।
किसी को नापसन्द है मेरा खाना तो किसी को मेरा पहनावा,
होती है मेरी लाशों का ढ़ेर लगाकर उनकी संस्कृती की रक्षा।
किताबें वही हैं, बातें वही हैं, बस ऊपर जिल्द का रंग है बदलता,
मुझ काफ़िर का सर कलम करना ही है हर धर्म की शिक्षा।
कहते है विकास हुआ है मानव समाज का,
मगर उन्हें अब भी किसी की रोटी तो किसी की बेटी छीनने से फ़ुरसत नहीं।
दौर है आजकल पुरस्कारों का, किसी को देने का तो किसी को लौटाने का,
बस मेरे हाथ आया है ये पत्र तिरस्कार का।
कौन ग़लत, कौन सही, ये प्रश्न बहुत मुश्किल नहीं,
युगों से खिंची है सुर्ख़ लकीरें मेरे पटल पर, इसके जवाब में।
पूर्वजोँ की शक्ल में आँख, कान और मुँह बंद कर दिए मेरे,
स्वतंत्रता बस नाम की, गयी नहीं कहीं मनसिक परतंत्रता।
हर प्रश्न पे शब्द पत्थरों के मानिंद फेंके गए मुझपे कई हर ओर से,
सहिष्णुता के नाम पर है व्याप्त, ये कैसी असहिष्णुता।।
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