आज फिर वक़्त हमें उसी दोराहे पर लाया है,
जहां कुछ छूटता है, कुछ मिलने के वादे के साथ।
बारह कागजों के जो पुलिंदे हमने सजाये थे,
वो कटके बिखरने को हैं, घड़ी के हाथ।
हाँ, एक और नया पुलिंदा तैयार है, चंद कागजों और कई कसमों के साथ।
मगर इस दोराहे पर तो हर बार यूँही आके मिलते हैं,
कुछ ख्वाब, कुछ उम्मीदों, कुछ वादों के साथ,
जो बदल गये टूटे, अधूरी, झूठे अल्फ़ाज़ों में,
उगते सूरज और ढलते चाँद के साथ।
फिर से तैयार हैं हम वक़्त का एक और सफर तय करने को,
अपने वजूद को तारीखों का मोहताज करने को,
हाथों में लेकर जाम, इस घड़ी के नाम, आप दोस्तों के साथ।।
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