खड़ा हूँ किनारे पे हाथ में जाम लिए,
सोचता हूँ कौन डूबोयेगी मुझे पहले,
ये बहता हुआ पानी या ये जलती हुई शराब!
फिर सोचता हूँ क्यूँ इतना सोचता हूँ मैं,
जब किसी ने नहीं सोचा मेरा हाथ छुड़ा के चले जाते वक़्त,
यूँ अकेला इस अँधेरे जंगल में छोड़ जाते वक़्त,
मुड के एक बार भी देखा नहीं मेरी पुकारती आँखों की तरफ,
दिखती उन्हें क्या होती है ज़िन्दगी का हाथ छूटने की तड़प!
सोचता हूँ क्यूँ गम है मुझे किसी के छोड़ जाने से,
मेरे मनहूस साये से किसी के दूर जाने पे,
अच्छा ही तो है अब और कोई तबाही ना होगी मेरी वजह से,
बोझ होने की तोहमत अब तो हटेगी मेरे वजूद से,
एक और क़त्ल का इलज़ाम ना आयेगा मेरे सर पे,
अब तो जाना भी नहीं वहां वापिस एक बार जो चला आया हूँ मैं!
अब धीरे-धीरे मेरी सोच भी छूट रही है मुझसे,
ये कैसा अँधेरा छाता जा रहा है मेरे ज़हन पे,
इस अँधेरे में पानी सुर्ख और मेरा जाम खाली क्यूँ नज़र आता है मुझे,
ये मीठा सा क्या अहसास हो रहा है मुझे,
जैसे कोई महबूबा पुकारती है मुझे अपने आगोश में आने के लिए,
मगर अब तो बंद होती जा रही है मेरी आखें,
दीदार भी मुमकिन नहीं उसके चहरे का जिसने साथ सुलाया है मुझे !!!
3 comments:
whoa,, must say.. a poem with ample space for imagination.. the imageries in the poem are exquisitely and intricately woven .. it is.. sensuous.. at times.. and it is like a flowing river all thru .. it's gt a character of its own.
must say .. good one wolfie!
nice prassy! very nice...
long since i hv seen urdu/hindi poetry..
http://divyasriheartinked.blogspot.com/
yeh mera blog, kal hi banaya tha.
thanks a lot dibbu...for the appriciation and more for ur blog...look forward to it :D
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