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Sunday, March 24, 2013

कूड़े के ढेर का पेड़... Kude Ke Dher Ka Ped...


कूड़े के ढेर में खड़ा सूखी टहनियों  से  भरा  वो  एक  पेड़...
मानो  यूँ कोई  ज़िन्दगी तलाशता हुआ मौत की देहलीज़ पर।
देख के लगता है याद करता है वो वक़्त जब पतझर के दिन भी बहार होते थे...
पास उसके एक बाज़ार लगता था, जिसकी चहल-पहल से उसकी शामें खुशहाल  होती थी।।

Kude ki dher me khada sukhi tahnio se bhara wo ek ped...
Mano yun koi zindagi talashta maut ki dehliz par!
Dekh k lagta hai yaad karta hai wo waqt jab patjhar k din bhi bahaar hote the...
Pas uske yun ek bazar lagta tha, jiski chahal-pahal se uski shamein khushhal hoti thi!!

कभी उसकी टहनियों पे बर्तन तो कभी खिलोने लटकते थे,
आज तो खुद की पत्तियों के भी निशां नहीं मिलते!
अब न वो क्रेता रहे न वो विक्रेता, कभी कभी मिल जाता है वो एक बुढ़ा कुड़ेवाला...
मगर उस गरीब के लिए तो है बस कूड़े का ही मोल, बूढ़े पेड़ से क्यूँ बोले वो दो मीठे बोल?
रहते है उस कबाड़खाने में कुछ जानवर...कुत्ते, चूहे, सांप, छछुंदर...
पर वो भी नहीं भटकते उसके आस-पास, मौत की मनहूसियत की गंध आती होगी उन्हें शायद।।

Kabhi uski tahniyon pe bartan to kabhi khilone latakte the,
Aj to khud ki pattion ke bhi nishan nahi milte!
Ab na wo kreta(buyers) rahe na vo vikreta(sellers), 
kabhi kabhi mil jata hai wo ek budha kudewala...
Magar us gareeb k liye to hai bas kude ka hi mol, budhe ped se kiu bole wo do mithe bol?
Rahte hai us kabarkhane me kuch janwar...Kutte, chuhe, sanp, chachundar...
Par wo bhi nahi bhatakte uske aas-pas, maut ki manhusiyat ki gandh ati hogi unhe shayad!!


पर फिर भी आस नहीं मरी है अब तक उसकी, पास ही कहीं लगता है वो बाज़ार अब भी …
वोही चहल-पहल कुछ ऐसे बुलाती है उसे, जवां बसंत की याद दिलाती है उसे!
उम्मीद है उसे फिर उसी रौशनी में डूब जाने की, इन अंधेरो से निकलने की…
इस बसंत ने सूखा ही रखा तो क्या, उम्मीद है उसे आने वाले बारिश के बूंदों की… 
ज़िन्दगी फिर से जीने की!!!

Par fir bhi aas nahi mari hai ab tak uski, pas hi kahi lagta hai wo bazar ab bhi...
Wohi chahal-pahal kuch aise bulati hai use, jawa basant ki yaad dilati hai use!
Ummeed hai use fir usi roshni me dubne jane ki, in andhero se nikalne ki...
Is basant ne sukha hi rakkha to kya, umeed hai use ane wale barish ki bundo ki...
Zindagi fir se jeene ki!

Tuesday, January 1, 2013

Happy New Year!!!



Thousand wishes..Millions hopes...that's what New Year brings to you...
Like a seasoned politician, it spell-binds you in the web of many unfulfilled promises...
Not just that it makes you its own, with a string of broken resolutions...
New Year is nothing but a lie, a conceived notion called time...
Just like the assurances we give to ourselves and others...

There will be a tomorrow to look forward...
We shout, we scream...we protest on the streets...after-all we are students of 3 monkeys...
Nothing changes..nothing ever will...corruption and lechery has been seeded to our genes ...
We will just celebrate New Years,
A facade to forget that we are failures and villains of our own lives...
Only thing changes is the calender year!!!


Monday, October 8, 2012

আমি নির্দোষ ছিলাম - Aami Nirdosh Chhilam - I was Innocent

Note: Wrote this story long back in school, that was published in a magazine then. Retrieved it now and hence posting the scan copy. Excuse the childish writing....



Thursday, June 14, 2012

I don't...




Don’t take my silence for acceptance,
Don’t take my silence for weakness,
Don’t take my silence for your victory,
I am silent because I stopped caring a long time back,
From this hypocritical world I stand apart.

I know what you will say,
I know all your accusations and brickbats,
I have seen it all and have nothing to say,
I am silent because I stopped caring a long time back,
From this hypocritical world I stand apart.

Your standards may vary but mine don’t,
My whims are my own,
They are not up for your judgment so don’t
I am silent because I stopped caring a long time back,
From this hypocritical world I stand apart.

Saturday, February 11, 2012

मायूस सी ज़िन्दगी का जशन!



शायर तो बहोत आये, चले भी गए...
लिक्खा उन्होंने बहोत खूब, बस हम ही समझ न पाए,
नादानी मे कर बैठे कुछ ऐसी गलती, के पागल भी हमे पागल कहने लगे!


किस्मत ने सूरत-ए-हाल कुछ यूँ बयां किये, के हमारे अलफ़ाज़ भी कम पर गए...
दुनिया ने अनपढ़ कहा, हम भी खामोश रह गए!


चाहतों और नफरतों की उलझने कुछ यूँ उलझी, सुलझाते-सुलझाते ज़िन्दगी ख़त्म हो चली...
क्या खोया, क्या पाया, ये हिसाब फिर भी लगा न सके!


किसी ने कहा मौत से इतना ना दिल लगाओ, जब भी मिलती है दर्द बहोत देती है...
किसीने शायद सुना नहीं ये, कराहते रहे हम ज़िन्दगी भर कैसे!


मय्यत का मेरे इंतज़ार हमे भी है, और उनको भी...
हम ज़िन्दगी से आज़ादी का जशन  मनाएंगे, और उन्हें भी अपने साये से आज़ाद कर जायेंगे!


जशन-ए-आज़ादी का माहोल कुछ यूँ बनायेंगे, मौत भी शरमा जाएगी ये देखकर...
टुकड़ो-टुकड़ो में जो थोड़ी सी ज़िन्दगी कमाई थी हमने, जला दी वो भी आतिशबाज़ियों में!



Roman Script: 

Mayus Si Zindagi Ka Jashn!

Shayar to bahot aye, chale bhi gaye...
Likkha unhone bahot khub, bas hum hi samajh na paye.
Nadani me kar baithe kuch aisi galti, k pagal v hume pagal kahne lage!

Kismat ne surate-e-haal kuch yun bayan kiye, k humare alfaaz bhi kum par gaye...
Duniya ne anpadh kaha, hum bhi khamosh rah gaye!

Chahaton aur nafraton ki uljhane kuch yun uljhi, suljhate-suljhate zindagi khatm ho chali...
Kya khoya, kya paya, ye hisaab fir bhi laga na sake!

Kisi ne kaha maut se itna na dil lagao, jab bhi milti hai dard bahot deti hai...
Kisine shayad suna nahi ye, karahte rahe hum zindagi bhar kaise!

Mayyat ka mere intezaar hume bhi hai, aur unko bhi...
Hum zindagi se aazadi ka jashn manayenge, aur unhe bhi apne saye se azaad kar jayenge!

Jashn-e-aazadi ka mahol kuch yun banayenge, maut bhi sharma jayegi ye dekhkar...
Tukdo-tukdo me jo thodi si zindagi kamayi thi humne, jala di wo bhi aatishbaziyon me!

Tuesday, September 13, 2011

कहीं गुम हूँ मैं...



इस शोर में कहीं गुम है मेरी आवाज़....
इस भीड़ में कहीं गुम है मेरा वजूद...
इस दुनिया में कहीं गुम हूँ मैं...

इन्ही सभी में कही ढूँढना है मुझे,
नकाबों  को उतार के, असली शक्ल पहचानना है मुझे,
दबा-कुचला सा मैं, जो कहीं खो गया अपने आप में!

उन चन्द कांच के प्यालों में,
मिलता है कभी-कभी मेरा अक्स मेरे ही लिबास में,
शख्सियत भी कुछ जानी-पहचानी सी है,
फिर भी लगता है के ये मैं नहीं…
मैं तो कहीं खो गया हूँ इस हुजूम में, किसी और ही शख्सियत में!

बस अब और नहीं, काफी कुछ कह चुका हूँ मैं,
सुनेगा कौन, ये मेरी आवाज़ भी अब मेरी नहीं,
कुछ खुद की तलाश में और कुछ तलाशने खुदमे,
अपने खोये वजूद को…
अब शायद खो गया हूँ मैं, मौत की पनाह में!!!

Sunday, May 29, 2011

क्यूँ जिंदा?!



क्यूँ हूँ मैं जिंदा अब तक?
शायद मुझे चाहत है ज़िन्दगी की,
या शायद ज़िन्दगी को मेरी चाहत है!
या फिर मजबूरी है ये दुनिया की,
मुझे झेलने की, मेरे वजूद से कुछ फायदा लेने की!!

ये इल्ज़ामात गैरों पे लगाना फज़ूल है,
मेरी ज़िन्दगी किसी की अमानत तो नहीं,
ये तो वो गलती है जो मेरे वालिद ने की,
और मैंने गुज़ारी है!
अब खत्म करें भी तो करें कैसे इसे?
जिम्मेदारियों के बोझ तले यूँ दबा हूँ मैं,
नहीं टूटती ये जो ज़िन्दगी की मज़बूत बेड़ियाँ हैं!!

ये मेरी ही कमज़ोरी है,
या मेरी नासमझी है...
जो जिंदा हूँ मैं अब तक,
ज़िन्दगी जब नहीं प्यारी है!
मौत का ये बेवकूफाना इंतज़ार कैसा,
जब ज़िन्दगी और मौत मेरी ही मुट्ठी में हैं!
अब देर कैसी मेरी महबूबा को गले लगाने में,
मौत की खुशनुमा पनाहों में जाना है!!

न जी सका मैं किसी के लिए,
ना ही मर सका मैं अपने सुकून के लिए!
ये क्या कशमकश है,
ज़िन्दगी और मौत की ये कैसी रस्साकशी है?!
चन्द कदम ही तो अब मुझे उठाने है,
ज़िन्दगी से मौत की ओर...
ये तो बस आज और कल की सच्चाई है!!!