फसादों में उलझे हो, न जीते हो न जीने देते हो,
जिंदा हो मगर मौत का खेल खेलते हो।
तुम्हें मालूम नहीं फर्क - निर्दोष और दोषी का,
तुम्हें आता है सिर्फ खेल बर्बादी का।
देकर बलि कमज़ोर और मजलूमों की,
भरते हो दम सच्चाई और खुदाई का।
चाहे नाम लो किसी भी ऊपर वाले का,
दुश्मन इंसानियत के हो तुम,
सही मानों में तुम ही हैवान हो;
और तुम्हारा ऊपरवाला - नकारा, बेगैरत,
जिसकी खुदाई के नाम पे चलता है,
तुम्हारा ये कारोबार हैवानियत का।
इससे तो बेहतर थे हम जानवरों के मानिंद,
बस एक भूख ही अपना खुदा था।
चलो कर दो अंत तुम्हारी-हमारी इस बीमार नस्ल का,
होगा तभी शायद सृजन एक नए मकबूल नस्ल का।
तमाशबीनों ये तमाशा देखते रहो,
लहू के छींटों का स्वाद लेते हो,
जो आज ये बहता रक्त तुम्हारा नहीं,
रक्तबिजों का हौसला बढ़ाते हो।
कभी बिकेगा गोश्त तुम्हारा भी इसी मंडी में,
तुम्हारी जिंदगी की भी लगेगी बोली,
आखिर तुम भी हो एक बिकाऊ समान, इसी बाजारू दुनिया में,
जहां ज़िंदगी सस्ती, मगर उसका तमाशा बिकता बड़ा महंगा है।