इस भीड़ में कहीं गुम है मेरा वजूद...
इस दुनिया में कहीं गुम हूँ मैं...
इन्ही सभी में कही ढूँढना है मुझे,
नकाबों को उतार के, असली शक्ल पहचानना है मुझे,
दबा-कुचला सा मैं, जो कहीं खो गया अपने आप में!
उन चन्द कांच के प्यालों में,
मिलता है कभी-कभी मेरा अक्स मेरे ही लिबास में,
शख्सियत भी कुछ जानी-पहचानी सी है,
फिर भी लगता है के ये मैं नहीं…
मैं तो कहीं खो गया हूँ इस हुजूम में, किसी और ही शख्सियत में!
बस अब और नहीं, काफी कुछ कह चुका हूँ मैं,
सुनेगा कौन, ये मेरी आवाज़ भी अब मेरी नहीं,
कुछ खुद की तलाश में और कुछ तलाशने खुदमे,
अपने खोये वजूद को…
अब शायद खो गया हूँ मैं, मौत की पनाह में!!!