
हमपे इल्जाम लगाना ये तो दुनिया की आदत पुरानी है.
हर इल्जाम को अब खामोशी से मान लेना हमने भी सीख ली है.
वैसे भी क्या करना खुदको बेगुनाह साबित करके, जब ता-उम्र गुनाहगारों की कैद में ही गुजारनी है.
सोचता हूँ अब तो कोई गुनाह कर ही डालूं, शायद तब मन की मुराद पूरी हो जाये,
आखिर सजा-ए-मौत से ही तो मेरे उम्र-कैद से रिहाई तारीख मुकम्मल होनी है!