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Monday, June 15, 2009

I'l be there, near but far!

I know I had promised a lot,
of being a friend a friend could trust.
Of being there, when a friend was needed the most.
Of being a joker when laughter was needed, of beng a conspirator, when some michief was the need,
of being a listener when a friend was lonly and sad.
But I also know I've not been able to be anything but me.
And I also know that I was'nt always right.
But I wont say sorry, because thats never needed between friends.
I wont run away, I'l be there, but a bit far, for I fear to cause more damage to those near and dear.
It's better that way, i'tz for the greater good.
They can have all the joy and I can be content seeing them happy and together.

Friday, June 12, 2009

The Spirit



Everything can be snatched away from me.
Everything can be lost by me.
I might be rendered totally hopeless and helpless.
But the spirit would live for what is so dear to me.

I have soul of the wolf inside,
that eggs me on for one more fight,
he can be bruised, battered, and left to die.
But I won’t give up, the wolf will fight.
From the ashes I will rise as the phoenix to the sky.

I know it won’t be easy, the enemy is strong,
and the one strongest is none but me.
But I won’t hide and I won’t cry,
and I won’t loose what I hold so precious, my heart and the spirit inside.

Sunday, June 7, 2009

खोया मुकाम...


ऐसा लगता है कुछ टूट सा गया है...
पिछले मोड़ पे कोई मुकाम छूट सा गया है...
पीछे मुडके वापिस जाने की कोशिश भी कर ली मैंने,
पर वापसी की राह कही खो सा गया है...

कोई पुकार लेता हमे वहा से शायद तो कदम बढाता भी मैं पर,
मेरे साथ मेरी यादों ने भी वहा से रुखसत लिया है...
अब आगे बढूँ ये भी मुमकिन नही लगता,
मेरे आगे कोई राह भी तो दीखता नही है...
अब तो मेरे साथ वक्त भी ठहर सा गया है,
अंधेरे जंगल में वो भी कही राह भटक सा गया है...
शायद मौत का इंतज़ार भी अब बेमानी सा है,
वो भी शायद किसी और ही राह बढ़ गया है!

Thursday, June 4, 2009

जिंदगी के कुछ अनसुलझे सवाल!


ऐसा क्यूँ है के जिस सवाल का जवाब नही होता, वही चाहता हूँ मै पूछना?
ऐसा क्यूँ है के जो बात कहनी है उसके लिए सही शब्द नही चुन पता?
ऐसा क्यूँ है के जानता हु कोई कवि नही मै, फ़िर भी यूँ ही बेमतलब कलम रहता हूँ चलता?
ऐसा क्यों है के उम्मीदी के अंधेरे में भी किसी रौशनी का इंतज़ार ख़त्म नही होता?
ऐसा क्यूँ है के जिसकी तलाश है वो खुदा कही नही मिलता?
ऐसा क्यूँ है के दिल तो था पत्थर का, पर लगता है सीने में कोई खंजर सा चुभा हुआ?
ऐसा क्यूँ है के जब आँखों में आंसू नही फ़िर भी कुछ पलकों से बहार छलकने को तरसता?
ऐसा क्यूँ है के किसी को दो पल की खुशी देने क काबिल नही मै, फ़िर भी ख़ुद ही मुस्कुराने की कोशिश हु करता?
ऐसा क्यूँ है के अकेले रहना ही बेहतर जनके भी दोस्तों का साथ नही छोड़ सकता?
ऐसा क्यूँ है के जनता हु मौत में ही मिलेगी शान्ति मुझे, फ़िर भी जीना नही छोड़ता?
ऐसा क्यूँ है के जिस सवाल का जवाब नही होता, वही चाहता हूँ पूछना?


Tuesday, June 2, 2009

राहे ज़िन्दगी




थक गया हु राहे ज़िन्दगी में चलते-चलते, ठोकरें खाते-खाते और संभलते-संभलते!



कोई साया भी नहीं जो ठहर लूँ दो पल को, कोई हमसफ़र भी नहीं दो बाते करने को साथ में!



अब तो खो गया है मंज़िल का पता भी कही, भटक गया हूँ राह पिछले किसी मोड़ पे!






न जाने फिर भी क्यूँ चला जा रहा हूँ मै, यूँ ही भटकता हुआ इस अनजान वीराने में…



अपने कदमो की आहात भी एक शोर सी लगती है अब, आदत जो हो गयी है खामोश सन्नाटे की!



अब तो दिल की हर ख्वाहिश दफना दी है मैने, छुपा था जो हर हसरत में मेरी, कुछ खोने या कुछ न पाने का डर॥



बस एक ही तम्मान्ना लिए अब तो आगे बढ़ रहा हूँ मै, शायद हो अगला मोड़ ही इस राह का अंत!!